ग्रहितोग्र महाचक्रे दंष्ट्रोद्धृत वसुंदरे | वार्हारूपणी शिवे नारायणी नमोस्तुते
हिमालयी समाज अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक परम्पराओ के लिए दुनिया के सामने अब भी रहस्य बना हुआ है | ऐसी ही अनूठी विस्मयकारी परंपरा का निर्वाहन उत्तराखंड के चम्पावत जिले के देवीधुरा नाम स्थान में सदियों से होता आ रहा है | यह परंपरा है रक्षाबंधन के दिन खेली जाने वाली बग्वाल |
आध्यात्मिक, धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण यह स्थान पांडवो के अज्ञातवास से लेकर भगवान बुद्ध एवं शंकराचार्य तक की कहानियो को पौराणिक साक्ष्यों और जनश्रुतियों के आधार पर अपने में समेटे हुए है |
वाराही शक्तिपीठ देवीधुरा का प्रमुख आकर्षण है यहाँ प्रतिवर्ष लगने वाला आषाड़ी कौतिक (मेला ) है | यह मेला श्रावण शुक्ल की एकादशी को मंगलाचरण सिंहासन डोला पूजन, सांगी पूजन से आरम्भ हो अनेक आयामों को छूता हुआ भाद्र कृष्णपक्ष द्वितीय को पंचगव्य स्नान व चांद्रायण व्रतोद्यापन के साथ समाप्त हो जाता है |
संपूर्ण विश्व की अनूठी परम्पराओ में देवीधुरा की बग्वाल विचित्र एवं विस्मयकारी है | जहा एक और बग्वाल आम लोगो के लिए आकर्षण का केंद्र है, वही इतिहासकारो, बुद्धिजीवियों व शोधकर्ताओं के लिए यक्ष प्रश्न, आख़िरकार परमाणु सभ्यता के इस युग में लोग परंपरा के नाम पर एक दूसरे के ऊपर बड़े जोश खरोश के साथ पत्थर बरसा के चोटिल हो रहे है | आखिर क्यों ?
प्राचीन गुफा मंदिर-
पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह स्थान प्राचीन गुफा काली उपासना का केंद्र रहा होगा, जहा पर तंत्र साधनाओ से देवी को प्रसन्ना करने के लिए नरबलि दी जाती रही होगी | जो कालांतर में एक प्रथा के रूप में प्रचलित हो गयी | जिसमे क्रमानुसार चारों खामों से प्रत्येक वर्ष एक व्यक्ति की बलि दी जाने लगी | समय चक्रानुसार चम्याल खाम की वृद्धा की बारी आई, उसके वंश का एकलौता चिराग पौत्र के रूप में था | इस बात से परेशान हो वृद्धा ने देवी की आराधना की | देवी ने वृद्धा के पौत्र को अभयदान दे दिया साथ ही विकल्प के रूप में एक मानव के बराबर रक्त चारों खामों से चाहा, जिससे देवी के गण प्रसन्न हो जाए |
दूसरा ऐतिहासिक मिथक महर और फर्त्यालो के आपसी संघर्ष से जुड़ा है | पत्थरो के युद्ध में जो समूह जीतता वह वर्ष भर के लिए राजस्व का हक़दार होता था | बग्वाल का कारण जो भी रहा हो यह क्षण लोमहर्षण के साथ रोमांचकारी भी होता है | यह पाषण युद्ध महाभारत के वन पर्व में वर्णित अश्मिनयोधिनः की याद दिलाता है |
बग्वाल खेलने और बंद होने के अपने अनूठे नियन है | श्रवण शुक्ल एकादशी के दिन चारो खामों (चम्याल, गहड़वाल, वालिक, लमगड़िया ) व 7 थोकों के द्वारा सामूहिक पूजा अर्चना के साथ साथ सिंहासंडोला, सांगी पूजन करते है | इसके बाद श्रवण शुक्ल पूर्णमासी के दिन होने वाली बग्वाल में भाग लेने के लिए दयोंका,निकेत रखते हैं |
पूर्णमासी के दिन चारों खामों एवं सातों थोकों के प्रधान वाराही धाम के पुजारी की उपस्तिथि में वेद पाठार्चन के साथ महामाया दिगम्बरा के सम्मुख ताम्रमञ्जूषा की सामूहिक पूजा अर्चना करते है | ऋषि तर्पण, रक्षाबंधन, तिलक मंत्र पठान कर वीरपूजा के बाद सिंहासंडोले को दर्शन के लिए डोलाघर में रख देते है फिर प्रसाद वितरण होता है | उसके बाद चारों खामों के प्रधान अपने अपने रणबाकुरों से मिलते है | फिर क्या वाराह वाहिनी डंडों और फर्रो (ढ़ाल) के साथ परंपरागत वेश भूषा से सुसज्जित हो अपने निर्धारित मार्ग से खोलखांड-दूर्वाचौड़ के लिए प्रस्थान करते है | वाराही मैया की जय, इ-ह-ह ||| ह ||| हा ||| हा ||| हा-इ के गगनभेदी नारों की साथ विशेष विधि से खोलीखांड के प्रतीकों एवं मंदिर सहित गबयुरि की परिक्रमा कर चारों खाम खोलीखांड में पहुंच जाते हैं, तब पूर्वी छोर से चम्याल खाम एवं गहड़वाल और पश्चिमी छोर से वालिक एवं लमगड़िया खाम कोरी बग्वाल आरम्भ कर देते है | कोरी बग्वाल में ढाल का प्रयोग करना वर्जित है | कुछ अंतराल बाद ढाल की आड़ बांधकर सेखड़ों की संख्या में देवगण बिना निश्चित निशाना साधे एक दूसरे के ऊपर पत्थर बरसाते है | एकटक हो लोग इस नज़ारे को देखते रहते है | ढोल-नगाड़ो व वाराही मैया की जय, इ-ह-ह ||| ह ||| हा ||| हा ||| हा-इ के वैदिक उद्घोष के साथ वाराह-वाहिनी का उत्साह अगणित हो जाता है | इसी अंतराल में पुजारी गुफा में देवी का ध्यान कर रहे होते है | जब उन्हें दैवीय प्रेरणा से पता चलता है की एक मानव के बराबर रक्त बग्वाल में बह चुका है, तब पुजारी बग्वाल बंद करवा देते है | बग्वाल बंद होने बाद वाराह-वाहिनी के वीर आपस में प्रेम से माँ के जयकारे के साथ गले मिलते हैं | बग्वाल से लगाने वाली चोटों का परंपरागत इलाज़ पहाड़ में पायी जाने वाली बिच्छुघास से होता है | बग्वाल की वेश-भूषा में माँ वाराही के भक्त शूरवीरों की भांति प्रतीत होते है | इतिहासकार इस स्थान को बंगालियों का तीर्थ मानते हैं | वहीँ शक्तिपीठ के आचार्य मानते है की यह स्थान पुराकाल से तांत्रिक उग्रपीठ रहा है |
देवीधुरा में मंदिर निर्माण प्रक्रिया के दौरान प्राचीन मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए है | आध्यात्मिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक रूप से इस स्थान को पर्यटन के विश्वमानचित्र में उभारा सकता है | देवीधुरा ही एक मात्र शक्तिपीठ है जहा माँ वाराही की उपासना होती है |
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