मातु कृपा के आसरे, भक्त रहे जो कोय। 
    सुख शांति घर में रहे, मंगलमय जीवन होय।।



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देवात्मा हिमालय की गोद में अवस्थित उत्तराखंड देवभूमि के नाम से जगत विख्यात है।  अनन्तकाल से यहाँ ऋषि-मुनियों ने साधना-आराधना से आध्यात्मिक चेतना  प्राप्त  कर के समूची मानवता को नई दिशा व दृष्टि प्रदान की है।  दैवीय चेतना से सराबोर इस देवांचल ने विशेष रूप से सूक्ष्म स्पन्दनों से यहां के वातावरण में अभिनव भक्ति व शंक्ति का संचार किया है। 

       पुराण प्रशिद्ध कुर्मांचल छेत्र में देवी उपासना का विशिष्ट स्थान है।  पंचदेवोपासना के आस्तित्व में होने के बावजूद नवरात्रों के अतिरिक्त भी किसी छोटे या बड़े शुभ कार्य का प्रारम्भ मातृ वंदन 'ॐ जयंती मंगलकारी........... ' 'सर्वमंगलमांगल्ये.............' से होता है। उत्तराखंड के इस दिव्य भू-भाग में देवी उपासना की विशेष महत्ता दृष्टिगत होती है। यहाँ मातृसत्ता के प्रति श्रद्धा भाव की प्रधानता है।  इसी कारण से इस छेत्र में स्थापित देवालयों की महत्वपूर्ण विशेषता है, की जहाँ  एक ओर शिव व अन्य देवताओं के मंदिर तलहटियों में स्थापित है तो वही दूसरी ओर देवी मंदिर ऊँचे शिखरों में विद्यमान है।  

    कूर्मावतार की पवन धरा व अतीत में चंद राजवंश की प्रथम ऐतिहासिक राजधानी रहे काली कुमाऊं के नाम से प्रसिद्ध चम्पावत जनपद के अंतर्गत नैसर्गिक सौन्दनर्य से परिपूर्ण पौराणिक नगरी लोहाघाट के समीपवर्ती मनमोहक पर्वत श्रंखला के मध्य भाग में देवीपीठ (देवीधार) स्थित है।  देवीधार का अर्थ  'देवी का शिखर' होता है।  देवदार वनों के बीच ऊँचे शिखर में माँ भगवती विराजमान हैं। यह कालिकुमाऊं अंचल के जाग्रत देवीपीठों में से एक है।  यहां पर पहुंचकर श्रद्धालु देवी सत्ता के प्रति  स्वयंमेव नतमस्तक हो जाते है।  लोहाघाट से इस देवीधाम की दुरी लगभग 5 किलोमीटर है।  मंदिर के पूर्वी छेत्र में ग्राम पंचायत डैसली, पश्चिम छेत्र में कालीगाँव व दक्षिण भाग में चौड़ी राय ग्राम पंचायतें है।  अब यहाँ तक हल्का मोटर मार्ग भी निर्मित हो चूका है। 

     देवीधार के भगवती मंदिर स्थापना के सम्बन्ध में वैदिक या पौराणिक साहित्य में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती लेकिन जनश्रुतियों में  इस देवीपीठ के विषय में रोचक दास्ताने  प्राप्त होती हे।  कहानियो के अनुसार प्राचीन समय  में  इस छेत्र के लोग अज्ञात महामारी की चपेट में आ गए थे।  इस अरिष्ट से अनेक नर नारी असमय ही काल के ग्रास बन गए थे।  काल के इस क्रूर मजाक से अनेक घरो के चिराग सदा के लिए बुझ गए दूसरी ओर इस विभीषिका ने समूचे छेत्र को वेदनाग्रस्त कर दिया था।  जन समुदाय के अनेको प्रयत्नों के बाद भी  स्तिथि में सुधार नहीं हुआ।  मानवीय प्रयासों ने अंततः अपनी हार मानते हुए इस दैवीय प्रकोप से त्रास दिलाने हेतु इसी शिखर में रात्रि जागरण प्रारम्भ कर समवेत  स्वरों से माँ भगवती से अनुनय-विनय की। कहते है की अपने भक्तजनो की प्रार्थना सुन कर माँ भगवती कष्टनिवारण हेतु प्रकट हुई। कालांतर में माँ भगवती की स्मृतियों को चिरस्थायी बनाने तथा माँ भगवती को बारम्बार धन्यवाद् करने के लिए प्रतिवर्ष अषाढ़ी पर्णिमा के दिन भगवती मैया के दरबार में शीश नवा कर आशीर्वाद ग्रहण करने की परंपरा प्रारम्भ हुई, जो धार्मिक उत्सव (मेले) के रूप में विकसित होती रही। 


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       लोहाघाट के गोरखा समुदाय में प्रचलित मान्यता  के अनुसार उनके पूर्वज नेपाल से आकर गोरखानागर बस्ती में बसे तो इसी दौरान लोहाघाट व निकट के गांवों में भीषण महामारी का प्रकोप चल रहा था।  गोरखाओं के बुजुर्गों ने माँ  भगवती को स्मरण करते हुए उनके मोहल्ले में इस महामारी न फैलने हेतु मान-विनती की।  माँ भगवती  की कृपा से गोरखाओ की बसासत में कोई भी व्यक्ति इस महामारी का शिकार नहीं हुआ।  भगवती मैया द्वारा उनकी वह मान-विनती  स्वीकार कर लिए जाने पर उन्होंने देवी पूजन की शुरआत की, जो आज भी परंपरागत तरीके से जारी है। गोरखा लोग प्रत्येक परिवार में सुख शांति की कामना हेतु अत्यधिक धूम-धाम के साथ मेले में सम्मिलित होते है। 

   देवीधार के पश्चिम में अवस्थित बाणासुर की नगरी का सम्बन्ध  भी इसी मंदिर से जुड़ा बताया जाता है।  लोकगाथाओं  के अनुसार असुर सम्राट बाणासुर देवीपीठ में नित्य प्रति पूजा-अर्चना करता था लोकमान्यताओं के अनुसार असुर और यादवी सेनाओं के मध्य हुए भयानक संग्राम में विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य से अनिरुद्ध द्वारा भी देवीधार मंदिर में माँ भगवती की आराधना की गयी थी। 
    
    
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  देवीधार के भगवती मंदिर परिसर में प्रत्येक वर्ष अषाढ़ी पूर्णिमा को एक धार्मिक मेला लगता है। मेले की पूर्व संध्या से चौड़ी,डेंसली व कलीगाँव ग्रामों में देवी जागरण प्रारम्भ होता है, जिसमे दैवीय  अवतरण होता हैं।   इन सभी ग्रामों में अवतरित देवशक्तियाँ अपने-अपने मंदिरों से डोले (देवी रथ) में आरूढ़ होते है।  इन देवी रथों के साथ स्थानीय जनसमुदाय गगन भेदी स्वरों में जयकारों का उद्घोष व देवी गीतों का गायन करते हुए ढोल-नगाड़ों सहित देवी स्थल तक उमड़ पड़ते है, यहाँ पहुंच कर देवी रथ मंदिर की परिक्रमा करते है।   इन डोलों के साथ नर-नारियों का अपार जनसमूह होता है।


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    गांवों से सीढ़ीनुमा खेतों व उबड़ खाबड़ कच्चे  रास्तों की ऊँची चढाई पर लोगों के कंधे में विराजमान देवी रथ मंदिर की और बढ़ते हुए अनूठा आकर्षण उत्प्नन करते है। यहाँ की कठिन चढाई में जहाँ व्यक्ति स्वयं ही  कठिनाई से चढ़ पाता है ऐसे में रथोपरि विराजित देवी शक्तियों का डोले सहित आगमन किसी चमत्कार से कम नहीं।  देवी शक्ति के  चमत्कारी  नज़ारों को  देखकर व्यक्ति स्वयं ही मातृसत्ता के प्रति नतमस्तक हो जाता है।  चौड़ीराय, डेंसली व कलीगांव से इसी प्रकार चढ़ाइयां पार करते हुए क्रमशः तीनों गांवों के डोले देवीधार पहुंचते है और मंदिर की परिक्रमा करते है।  डोलों के मंदिर परिसर में पहुँचने के साथ यहाँ मेला प्रारम्भ हो  जाता है।  मेला शुरू होने से एक सप्ताह पूर्व यहाँ सांस्कृतिक व बौद्धिक कार्यक्रमों तथा खेल व विभिन्न प्रतियोगिताओ की धूम मच  जाती है।  स्थानीय  कलाकारों  बाहर से आए सांस्कृतिक दलों द्वारा भव्य प्रस्तुतियों से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया जाता है। पूर्णागिरि, वाराही, रीठासाहिब  चमदेवल मेले के बाद जनपद चम्पावत के इस  मेले में काली कुमाऊं अंचल की सांस्कृतिक विरासत का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।