अतीत में चंद एवं कत्यूर राजवंशों की राजधानी रहे तथा भगवान  विष्णु के कूर्मावतार के लिए मशहूर चम्पावत नगर एवं उसके आस-पास जहाँ साक्षात् प्रकृति ने दोनों हाथो से अपना अकूत खजाना लुटाया है, वही इसी क्षेत्र में स्थित धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व के स्थलों की मौजूदगी इलाके में कुछ खास होने का एहसास कराती है।  उत्तराखंड की देवभूमि में दूर दराज इलाकों में बिखरी आध्यात्मिक स्थलों में सदियों पुरानी परिपाटी पढ़ी दर पीढ़ी अपने मूल स्वरुप में मौजूद है।  ऐसा ही एक सुविख्यात स्थान हे गुरु गोरखनाथ धाम।  यह स्थान त्रिजुगी अखंड धूनी जलने के लिए प्रसिद्ध है।  बलि प्रथा के प्रबल विरोधी गुरु गोरखनाथ द्वारा स्थापित इस दरबार के बारे में मान्यता है की यहाँ पूजा-अर्चना कर शिशुओं की अकाल मृत्यु के खतरे को रोका जा सकता है।  यहीं नहीं गुरु गोरखनाथ दरबार के बारे में और भी कई कहानियां प्रचलित हैं।  


     चम्पावत जिला मुख्यालय से तकरीबन 33 किलोमीटर की दुरी पर पडोसी देश नेपाल की सीमा से लगे मंच कस्बे में नैसर्गिक सौन्दर्य के बीच गुरु गोरखनाथ का अनादिकाल से स्थापित मठ अपने प्राकृतिक वैभव से सभी को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर देता है।  आस्था के इस केंद्र में सतयुग से अखंड जल रही धुनि का प्रसाद भभूति के रूप में दिया जाता है।  इस त्रिजुगी धुनि में केवल बांज की लड़की को धोकर जलाने की प्रथा है। यहाँ अखंड हवन कुंड में हर रोज दो बार पूजा होती है।  इस दरबार में विभिन्न पर्वों खासकर महा शिवरात्रि पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु मन्नत मांगने के लिए आते है।  यही नहीं देश-विदेश में स्थित गोरखनाथ के अनुयायियों का भी यहां सालभर आवागमन बना रहता है। 


         कहा जाता है की गुरु गोरखनाथ में मठ की स्थापना चंद राजाओं के दौर में हुई थी।  उससे पूर्व  केवल स्थाई रूप से धूनी जलती रहती है। कथाओं में गुरु गोरखनाथ को सब देवताओं का गुरु माना जाता है।  शिशुओं की अकाल मौत रोकने के अलावा कई अन्य वरदानों के लिए भी इस दरबार की है।  जन्म के कुछ साल बाद काल के शिकार होने वाले वाले बच्चों के माता-पिता संतान की रक्षा के लिए यहाँ दरबार में बच्चों को चढ़ाकर वापस ले जाते है ऐसा करने से शिशुओं पर मंडराता खतरा कम हो जाता है।  मठ में सोंठ, लंगोट एवं हवन सामग्री को चढ़ावे के रूप में स्वीकार किया जाता है।  कहा जाता है की इंसान की बलि प्रथा को त्रिजुगी धूनी प्रथा अपनाई गई। 

       गोरखनाथ का दरबार कुछ दशक पूर्व तक अकूत धन-दौलत के लिए भी जाना जाता था।  यहाँ लोग आवश्यकता पड़ने पर कर्ज के रूप में सोना या नकद धन लेते थे तथा जरूरत पूरी होने पे उसी श्रद्धा के साथ वापस भी कर देते थे।  लेकिन 1995 के बाद मंदिर के इस  वित्तीय प्रबधन में व्यवधान उत्पन्न हो गया।  बीते  दशकों से यहाँ की व्यवस्था सँभालने वाले बाबा जसवंत नाथ के अनुसार सब गुरुओं के देव माने जाने वाले बाबा  भगवान शिव  योगवतार माना जाता है। इसी के चलते सिद्ध गोरखजी की मृत्यु का कोई दिन नहीं हैं। इंसान की बलि का विरोध करते-करते बाबा गोरखनाथ नेपाल व इससे लगे इस इलाके में पहुंचे। मानव बलि को बढ़ावा देने वाले नेपाल के राजा को सबक सिखाने के लिए उनके नाम पर गोरखा फौज बनी, जिसने बलि समर्थक राजा को मात दी। नेपाल में राजशाही के दौरान राजमुद्रा एवं राजमुकुट  में गोरखनाथ की चरणपादुका के चिन्ह होते थे।